कैसा लगता हैं?
कैसा लगता हैं जब एक अनजान शहर में कदम रखती हो...
कैसा लगता हैं जब अपनों से दूर परायों में आती हो...
कैसा लगता हैं जब नए चेहरों पर विश्वास नहीं कर पाती हो...
इसलिए नहीं कि तुम करना नहीं चाहती...पर इसलिए क्यूंकि तुम डरती हो ....
कैसा लगता हैं जब पहले दिन हर नज़र तुम्हें देखती हैं.....और आंकती हैं कि “अच्छा अब तुम नया क्या लाई हो...?”
मन ही मन में तुम खुद को नापती हो...मन ही मन में खुद से पूछती हो....
“क्या इनकी उम्मीदों पर मैं खरी उतर पाऊँगी...?” “मैं खुद विश्वास न करूँ पर क्या इनको विश्वास दिला पाऊँगी?” “क्या मैं इनके बीच रहकर इनकी जैसी बन पाऊँगी?” “क्या ये मुझे अपनाएंगे?”
या फिर मैं एक अनजान बन कर रह जाऊँगी? जो वहा होकर भी कही नहीं हैं....
कैसा लगता हैं..?
थोड़ा सा डर..असमंजस....खुद पर और खुद से सवाल....ढेर सारे...जवाब चाहती हो...पर उसी डर के कारण मांगती नहीं हो....
खुद को सँभालने के लिए....तुम काम में पूरा ध्यान लगाने कि कोशिश करती हो....
घर से फ़ोन...नहीं...उसका फ़ोन...नहीं...दोस्त से बात...अरे वो तो बिलकुल भी नहीं....
किसी दिन थक जाती हो, काम से...या फिर शायद खुद के सवालों से .....किसी रोज़ सोचती हो कि मेरी गति धीमी तो नहीं....या मेरा रास्ता गलत तो नहीं....
तब.....धीरे धीरे तुम लोगों से बातें करती हो...उनकी सुनती हो खुद कि सुनाती हो....
डरते हुए सवाल पूछना शुरू करती हो...कुछ कुछ बातें रखना शुरू करती हो...
खुद पर यकीन करना शुरू करती हो...अपना दर्द बताना शुरू करती हो....
फिर बातों बातों में...हँसना और हँसाना शुरू होता हैं....
आखिर हर कोई थोड़ी ना पत्थर का होता हैं...सबका दिल होता हैं....
सभी को दो मिनट बैठ कर बात करने वाला चाहिए...पूछने वाला चाहिए...सहलाने वाला चाहिए...
जवाब किसी को नहीं मांगता...पर सिर्फ एक सुनने के लिए कान चाहिए...
और तुम...तुम तो बहुत खूब हो उसमें..बातें सुनने में...चाहे अपनी सुनाओ या न सुनाओ...पर सुन कर हँस कर निकल जाने में...
इसी हँसी के बीच रिश्ते बनने लगते हैं...अब अगर तुम सुबह नहीं हँसती हो तो सब पूछते हैं....
अब वही अनजान लोग तुम्हारा चेहरा पढ़ते हैं.....बिन बोले सब समझने लगते हैं....
अगर काम पर देरी से आती हो तो दफ्तर से फ़ोन आ जाता हैं...इसलिए नहीं कि “अभी तक क्यूँ नहीं आई...?” पर इसलिए कि “सब ठीक तो हैं ना?”
लोग तुम्हारे सब्र कि तारीफ करने लगते हैं...और वो जो शुरू में थोड़ा डर था ना....उस पर तुम उनके साथ मिलकर हँसने लगती हो...
लोगों को मजाक में ही सही...हँसाने लगती हो....
अपनी बेवकुफियाँ बताने लगती हो....और उनकी फ़ैलाने लगती हो....
शाम कि चाय अब साथ में होती हैं...कई बार तो रात के 1 बजे का खाना भी साथ में मुहँ सिकोड़े खाने लगती हो....
सोमवार से शनिवार काम के लिए...और रविवार को किसी और बहाने, उन्ही सबके साथ बिताने लगती हो...
अपने और भी दोस्तों को इनसे मिलाने लगती हो....क्यूंकि More the better ना....
अब शहर अनजान सा नहीं लगता हैं ....अब लोग नए से नहीं लगते हैं ..और विश्वास...वो तो अब इन लोगों पर अटूट हैं....
क्यूंकि अब ये शहर..और यहाँ के लोग ही मेरे घर हो गए हैं....
अब रात के 3 बजे वाली बातें भी इनसें हैं और दिन के 3 बजे का काम भी......
कैसा लगता हैं?
अब पूरा लगता हैं....अपना लगता हैं....खास लगता हैं...जरुरी लगता हैं...क्यूंकि ये अपने जो हैं....
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